पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 2 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 2)
सूतजी बोले, 'राजा परीक्षित् के पूछने पर भगवान् शुक द्वारा कथित परम पुण्यप्रद श्रीमद्भागवत शुकदेवजी के प्रसाद से सुनकर और अनन्तर राजा का मोक्ष भी देख कर अब यहाँ यज्ञ करने को उद्यत ब्राह्मणों को देखने के लिये मैं आया हूँ और यहाँ यज्ञ में दीक्षा लिये हुए ब्राह्मणों का दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ।'
ऋषि बोले, 'हे साधो! अन्य विषय की बातों को त्यागकर भगवान् कृष्णद्वैपायन के प्रसाद से उनके मुख से जो आपने सुना है वही अपूर्व विषय, हे सूत! आप हम लोगों से कहिये। हे महाभाग! संसार में जिससे परे कोई सार नहीं है, ऐसी मन को प्रसन्न करने वाली और जो सुधा से भी अधिकतर हितकर है ऐसी पुण्य कथा, हम लोगों को सुनाइये।'
सूतजी बोले, 'विलोम (ब्राह्मण के चरु में क्षत्रिय का चरु मिल जाने) से उत्पन्न होने पर भी मैं धन्य हूँ जो श्रेष्ठ पुरुष भी आप लोग मुझसे पूछ रहे हैं। भगवान् व्यास के मुख से जो मैंने सुना है वह यथाज्ञान मैं कहता हूँ।
एक समय नारदमुनि नरनारायण के आश्रम में गये। जो आश्रम बहुत से तपस्वियों, सिद्धों तथा देवताओं से भी युक्त है, और बैर, बहेड़ा, आँवला, बेल, आम, अमड़ा, कैथ, जामुन, कदम्बादि और भी अनेक वृक्षों से सुशोभित है। भगवान् विष्णु के चरणों से निकली हुई पवित्र गंगा और अलकनन्दा भी जहाँ बह रही हैं। ऐसे नर नारायण के स्थान में श्री नारद मुनि ने जाकर उन परब्रह्म नारायण को जिनका मन सदा चिन्तन में लगा रहता है, जिसके जितेन्द्रिय, काम क्रोधादि छओ शत्रुओं को जीते हुए हैं, अत्यन्त प्रभा जिनके शरीर से चमक रही है। ऐसे देवताओं के भी देव तपस्वी नारायण को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर और हाथ जोड़कर नारद उस मुनि व्यापक प्रभु की स्तुति करने लगे।
नारदजी बोले, हे देवदेव! हे जगन्नाथ! हे कृपासागर सत्पते! आप सत्यव्रत हो, त्रिसत्य हो, सत्य आत्मा हो, और सत्यसम्भव हो। हे सत्ययोने! आप को नमस्कार है। मैं आपकी शरण में आया हूँ। आपका जो तप है वह सम्पूर्ण प्राणियों की शिक्षा के लिये और मर्यादा की स्थापना के लिये है। यदि आप तपस्या न करें तो, जैसे कलियुग में एक के पाप करने से सारी पृथ्वी डूबती है वैसे ही एक के पुण्य करने से सारी पृथ्वी तरती है इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
‘पहले सत्ययुग आदि में जैसे एक पाप करता था तो सभी पापी हो जाते थे’ ऐसी स्थिति हटाकर कलियुग में केवल कर्ता ही पापों से लिप्त होता है यह आप के तप की स्थिति है। हे भगवन्! कलि में जितने प्राणी हैं सब विषयों में आसक्त हैं।
स्त्री, पुत्र गृह में लगा है चित्त जिनका, ऐसे प्राणियों का हित करने वाला जो हो और मेरा भी थोड़ा कल्याण हो ऐसा विषय विचार कर केवल आप ही कहने के योग्य हैं। वही आपके मुख से सुनने की इच्छा से मैं ब्रह्मलोक से यहाँ आया हूँ। आप ही उपकारप्रिय विष्णु हैं ऐसा वेदों में निश्रित है। इसलिये लोकोपकार के लिये कथा का सार इस समय आप सुनाइये।जिसके श्रवणमात्र से निर्भय मोक्षपद को प्राप्त करते हैं।'
इस प्रकार नारदजी का वचन सुन भगवान् ऋषि आनन्द से खिलखिला उठे और भुवन को पवित्र करने वाली पुण्यकथा आरम्भ की।
श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! गोपों की स्त्रियों के मुखकमल के भ्रमर, रास के ईश्वर, रसिकों के आभरण, वृन्दावनबिहारी, व्रज के पति आदिपुरुष भगवान् की पुण्य कथा को कहता हूँ। जो निमेषमात्र समय में जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं उनके कर्मों को हे वत्स! इस पृथ्वी पर कौन वर्णन कर सकता है? हे नारदमुने! आप भी भगवान् के चरित्र का सरस सार जानते हैं। और यह भी जानते हैं कि भगवच्चरित्र वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता। तथापि अद्भुत पुरुषोत्तम माहात्म्य आदर से कहते हैं। यह पुरुषोत्तम माहात्म्य दरिद्रता और वैधव्य को नाश करने वाला, यश का दाता एवं सत्पुत्र और मोक्ष को देने वाला है अतः शीघ्र ही इसका प्रयोग करना चाहिये।'
नारद बोले, 'हे मुने! पुरुषोत्तम नामक कौन देवता हैं? उनका माहात्म्य क्या है? यह अद्भुत-सा प्रतीत होता है, अतः आप मुझसे विस्तारपूर्वक कहिये।'
सूतजी बोले, श्रीनारद का वचन सुन नारायण क्षणमात्र पुरुषोत्तम में अच्छी तरह मन लगाकर बोले।'
श्रीनारायण बोले, ‘पुरुषोत्तम’ यह मास का नाम जो पड़ा है वह भी कारण से युक्त। पुरुषोत्तम मास के स्वामी दयासागर पुरुषोत्तम ही हैं, इसीलिये ऋषिगण इसको पुरुषोत्तमास कहते हैं। पुरुषोत्तम मास के व्रत करने से भगवान् पुरुषोत्तम प्रसन्न होते हैं।'
नारदजी बोले, 'चैत्रादि मास जो हैं वे अपने-अपने स्वामी देवताओं से युक्त हैं ऐसा मैंने सुना है परन्तु उनके बीच में पुरुषोत्तम नाम का मास नहीं सुना है। पुरुषोत्तम मास कौन हैं? और पुरुषोत्तम मास के स्वामी कृपा के निधि पुरुषोत्तम कैसे हुए? हे कृपानिधे! यह आप मुझसे कहिये। इस मास का स्वरूप विधान के सहित हे प्रभो! कहिये। हे सत्पते! इस मास में क्या करना? कैसे स्नान करना? क्या दान करना? इस मास का जप पूजा उपवास आदि क्या साधन है? कहिये। इस मास के विधान से कौन देवता प्रसन्न होते हैं? और क्या फल देते हैं? इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी तथ्य हो वह हे तपोधन! कहिये। साधु दीनों के ऊपर कृपा करने वाले होते हैं वे बिना पूछे कृपा करके सदुपदेश दिया करते हैं।
इस पृथ्वी पर जो मनुष्य दूसरों के भाग्य के अनुवर्ती, दरिद्रता से पीड़ित, नित्य रोगी रहने वाले, पुत्र चाहने वाले, जड़, गूँगे, ऊपर से अपने को बड़े धार्मिक दरसाने वाले, विद्या विहीन, मलिन वस्त्रों को धारण करने वाले, नास्तिक, परस्त्रीगामी, नीच, जर्जर, दासवृत्ति करने वाले, आशा जिनकी नष्ट हो गयी है, संकल्प जिनके भग्न हो गये हैं, तत्त्व जिनके क्षीण हो गये हैं, कुरुपी, रोगी, कुष्ठी, टेढ़े-मेढ़े अंग वाले, अन्धे, इष्टवियोग, मित्रवियोग, स्त्रीवियोग, आप्तपुरुषवियोग, मातापिताविहीन, शोक दुःख आदि से सूख गये हैं अंग जिनके, अपनी इष्ट वस्तु से रहित उत्पन्न हुआ करते हैं।
किस अनुष्ठान के करने और सुनने से, पुनः उत्पन्न न हों, हे प्रभो! ऐसा प्रयोग हमको सुनाइये। वैधव्य, वन्ध्यादोष, अंगहीनता, दुष्ट व्याधियाँ, रक्तपित्त आदि, मिर्गी राजयक्ष्मादि जो दोष हैं, इन दोषों से दु:खित मनुष्यों को देखकर हे जगन्नाथ! मैं दुःखी हूँ। अतः मेरे ऊपर दया करके, हे ब्रह्मन्! मेरे मन को प्रसन्न करने वाले विषय को विस्तार से कहिये। हे प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, समस्त तत्त्वों के आयतन हैं।'
सूतजी बोले, इस प्रकार नारद के परोपकारी मधुर वचनों को सुन कर देवदेव नारायण, चन्द्रमा की तरह शान्त महामुनि नारद से नये मेघ के समान गम्भीर वचन बोले।
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
॥ हरिः शरणम् ॥
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