पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 28 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 28)

श्रीनारायण बोले, 'चित्रगुप्त धर्मराज के वचन को सुनकर अपने योद्धाओं से बोले, 'यह कदर्य प्रथम बहुत समय तक अत्यन्त लोभ से ग्रस्त हुआ, बाद चोरी करना शुरू किया। इसलिये यह प्रथम प्रेतशरीर को प्राप्त कर बाद वानर शरीर में जाय, तब हम इसको बहुत-सी नरकयातना देंगे।



हे भट लोग! धर्मराज के गृह में यही क्रम श्रेष्ठ है। इस प्रकार चित्रगुप्त से आज्ञा प्राप्त होने पर भयंकर भट लोगों ने चित्रगुप्त की आज्ञानुसार शीघ्र वैसा ही किया और उस ब्राह्मण को पीटते हुए प्रथम प्रेतशरीर में करके फलरहित वन में रक्खा। वह ब्राह्मण प्रेत योनि को प्राप्त कर उस निर्जन गहन वन में क्षुधा-तृषा से अत्यन्त व्याकुल होकर भ्रमण करने लगा।



प्रेतयोनि में होनेवाले दुःख को भोग कर बाद फलों के चोरी करने से होने वाली वानर योनि को गया। सुन्दर शीतल जल और छाया तथा फल-पुष्प से युक्त जम्बू खण्ड के मनोहर सुन्दर कालञ्जोर पर्वत पर वहाँ इन्द्र से बनाया हुआ उत्तम कुण्ड है। मानसरोवर के समान पवित्र, सत्पुरुषों से सेवित, पापों का नाश करने वाला देवताओं को भी दुर्लभ ‘मृगतीर्थ’ नाम से प्रसिद्ध था। जिसमें श्राद्ध करने से पितर लोग सद्‌गति को चले जाते हैं।



वहाँ पर देवता लोग दैत्यों के भय से मृग होकर निरन्तर, निर्भय स्नान करने लगे। इसलिये विद्वान्‌ लोग उस कुण्ड को मृगतीर्थ कहते हैं। मनुष्य शरीर को प्राप्त कर यह ब्राह्मण वहाँ पर फलों के चोरी करने के पाप से प्रथम वानर शरीर को प्राप्त हुआ।

नारद मुनि बोले, 'त्रैलोक्य को पवित्र करने वाले रमणीय मृगतीर्थ में पापकोटि से युक्त वह दुष्ट वानर कैसे वास करता हुआ? हे नाथ! हे तपोधन! मेरे मन के सन्देह को काटो। क्योंकि आपके समान गुरुजनों का अपने शिष्यों के विषय में कभी भी गोप्य नहीं होता है।'



सूतजी बोले, 'हे विप्रलोग! इस प्रकार नारद मुनि से प्रेरित होने पर अत्यन्त प्रसन्न तपोनिधि नारायण भगवान्‌ नारद मुनि का सत्कार करते हुए बोले।'



श्रीनारायण बोले, 'कोई चित्रकुण्डल नाम का महान्‌ वैश्य था। पतिव्रत धर्म में परायणा तारका नाम की उस वैश्य की स्त्री थी। उन दोनों ने भक्ति से पवित्र श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत किया। जब श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत करते उन दोनों का श्रीपुरुषोत्तम मास बीत गया। अन्तिम वाले दिन के आने पर स्त्री के साथ हर्ष से युक्त श्रद्धापूर्वक चित्रकुण्डल ने उद्यापन किया। पुरुषोत्तममास के उद्यापन विधि करने के लिये वेद और वेदांग को जानने वाले गुणी स्त्री सहित ब्राह्मणों को बुलाया।

हे नारद! वहाँ पर धन के लोभ से कदर्य भी आया। उद्यापन विधि के पूर्ण होने पर चित्रकुण्डल ने बहुत बड़े दानों से उन सपत्नीक ब्राह्मणों को प्रसन्न किया। उन समस्त ब्राह्मणों के प्रसन्न होने पर भूयसी दक्षिणा को दिया। उस दी हुई भूयसी दक्षिणा से प्रसन्न अन्य सब ब्राह्मण गृह को गये परन्तु अत्यन्त लोभी कदर्य उस वैश्य चित्रकुण्डल के सामने रोता हुआ खड़ा हो गया। और विनय से नम्र होकर गद्‌गद वाणी से बोला, 'हे चित्रकुण्डल! हे वैश्येश! हे भगवद्भक्ति के सूर्य! आपने पुरुषोत्तम मास का व्रत विधि से अच्छी तरह किया। इस तरह पृथिवी तल में कहीं पर किसी ने नहीं किया। आप कृतार्थ हो, सर्वथा भाग्यवान्‌ हो जो तुमने परम भक्ति से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सेवन किया। तुम्हारे पिता धन्य हैं और तुम्हारी पतिव्रता माता धन्य हैं। जिन दोनों ने तुम्हारे समान हरिवल्लभ पुत्र को पैदा किया। यह पुरुषोत्तम मास धन्य से भी धन्य है। जिसके सेवन से मनुष्य इस लोक के और परलोक के फल को प्राप्त करता है।



हे विशांपते! तुम्हारी इस पूजा को देखकर मैं चकित हो गया। अहो! तुमने बहुत बड़ा काम किया इसमें सन्देह नहीं है। हर्ष से दूसरे ब्राह्मणों को भी बहुत-सा धन दिया। हे भूरिद! भाग्यहीन मेरे लिए क्यों नहीं देते हो? इस प्रकार कदर्य के कहने पर चित्रकुण्डल वैश्य ने कदर्य को धन दिया। कदर्य ने धन को लेकर प्रसन्नता से उसको जमीन में गाड़ दिया।



वहाँ पर कदर्य ने श्रीपुरुषोत्तम की बड़ी पूजा देखी और धन के लोभ से पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की। पूजा के दर्शन माहात्म्य से और पुरुषोत्तम भगवान्‌ की स्तुति से तथा धन का लोभ होने पर भी मृगतीर्थ को आया।



सूतजी बोले, 'दर्शन से, स्तुति से, धन के लोभ करने से भी दुष्ट वानर को उत्तम तीर्थ का सेवन हुआ। हे द्विजलोग! श्रद्धा से आदरपूर्वक पुरुषोत्तम देव के दर्शन और स्तुति में तत्पर सपत्नीक के पुण्य का क्या कहना है?



नारद मुनि बोले, 'हे ब्रह्मन्‌! सुन्दर वृक्षों से शोभित, सुन्दर शीतल जल वाले, मनोहर घनी छायावाले वन में उसके रहने का कारण क्या है? सो आप कहिये।



श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! हे अनघ! तुम सुनो, सुनने की इच्छा करनेवाले तुमको मैं कहूँगा। इसमें कुछ कारण है जिसके श्रवण से पापों का नाश हो जाता है। जब समस्त अर्थ और फलों के दाता दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी ने समुद्र में सेतु बाँधकर दुष्ट रावण का नाश किया। उन रामचन्द्रजी ने विभीषण को छोड़कर बाकी समस्त राक्षसों का वध किया किसी को नहीं छोड़ा। अग्नि में परीक्षा कर सीता को ग्रहण किया। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवता रावण के वध से प्रसन्न होकर बोले कि हे राम! तुम वर को माँगो। ऐसा कहने पर भक्तों को अभय करने वाले रामचन्द्र बोले, 'हे देवता लोग! यदि इस समय वरदान देना है तो सुनो।



यहाँ पर राक्षसों से शूर वानर मारे गये हैं उनको हमारी आज्ञा से अमृत वृष्टि कर शीघ्र जिला दो। ‘तथास्तु’ यह कह कर ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवताओं ने अमृत की वृष्टि करके वानरों को जिला दिया। तदनन्तर वे जयशाली समस्त वानर जीवित हो गये और चिर-काल तक शयन कर उठे हुए के समान देखने में आये। रामचन्द्र चारों तरफ बैठे हुए समस्त वानरों के साथ पुष्पक विमान पर सवार होकर प्रसन्न मुखकमल वाले सपत्नीक रामचन्द्र बोले।



श्रीरामचन्द्रजी बोले, 'हे सुग्रीव! हे हनुमन्‌! हे तारात्मज! हे जाम्बवान्‌! वानरों के साथ आप लोगों ने मित्र का समस्त कार्य किया। आप लोग उन वानरों को आज्ञा दो, जिसमें यहाँ से आप लोगों की आज्ञा पाकर वानर अपनी-अपनी इच्छानुसार जंगलों में जायँ। हमारे ये दीर्घजीवी वानर जहाँ-जहाँ वास करें वहाँ के वृक्ष पुष्प फलों से युक्त हो जायँ

नदी मीठे जलवाली हो, शीतल जल वाले सुन्दर तालाब हों, इनको कोई भी मना नहीं करे। हमारी आशा से समस्त वानर जायँ।'



इसीलिए रामचन्द्र के प्रभाव से जहाँ वानर जाति के लोग वास करते हैं वहाँ वन में मीठे जलवाली नदी और सुंदर तालाब होते हैं। पुष्प पत्र से युक्त, सुन्दर फलवाले बहुत से वृक्ष हैं परन्तु अदृष्ट से होनेवाले पूर्वजन्म के सुखदुःख, जहाँ-जहाँ प्राणी निवास करता है वहाँ-वहाँ अवश्य जाते हैं क्योंकि बिना भोगे कर्म का नाश नहीं है। ऐसी वेद की आज्ञा है।



श्रीनारायण बोले, 'फिर वहाँ पर यह लालची वानर पर्वत के समान बढ़ता हुआ भूख-प्यास से युक्त पीड़ित वन में विचरण करने लगा। उसके मुख में पित्त के प्रकोप से पीड़ा उत्पन्न हुई जो उसका जन्म का रोग था। जिस पीड़ा से मुख के घावों से दिन-रात रुघिर बहा करता है। अत्यन्त पीड़ा के कारण कुछ भी भोजन नहीं कर सकता था और वह वानर चंचलतावश वृक्षों में से उत्तम फलों को तोड़ कर मुख के पास ले जाकर बहुत से फलों को जमीन में गिरा दिया करता था। वहाँ वानर पीड़ा के कारण कहीं भी एक स्थान पर बैठने में असमर्थ था।



एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाता हुआ मृत्यु को सुख देनेवाला मानने लगा। किसी समय पृथिवी पर गिर पड़ा और अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगा। शरीर के टूट जाने से जलहीन मछली के समान तड़फड़ाता हुआ रोदन करने लगा। शिथिल शरीर वाला, गलित मुखवाला वह वानर भूख-प्यास से पीड़ित हो गया। उसके समस्त दांत मुखरोग से पीड़ित होकर गिर गये। पूर्व जन्म के कृत पाप से इस तरह दुःख को प्राप्त हुआ।



इस प्रकार नित्यप्रति निराहार रहते हुए वानर को देवयोग से श्रीपुरुषोत्तम मास आया। उस पुरुषोत्तम मास में भी उसी प्रकार शीतवात आदि से पीड़ित रहा। किसी समय बहुल पक्ष में गहन वन में विचरण करता हुआ प्यासा वानर कुण्ड के पास पहुँचने पर भी जलपान करने को समर्थ नहीं हुआ, भूख से युक्त भी चपलता से वहाँ ऊँचे वृक्ष के ऊपर चढ़ गया। एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाते हुए उसके बीच में एक कुण्ड आ पड़ा। बहुत दिनों से निराहार शिथिल इन्द्रिय और जर्जर शरीर वाला निर्बल, शिथिल प्राणवाला कुण्ड के तटभाग में आया। इस प्रकार दशमी तिथि से चार दिन तक वानर को श्रीपुरुषोत्तम मास में उस कुण्ड में लोट-पोट करते बीत गये। पाँचवे दिन के आनेपर मध्याह्न काल में उस तीर्थ में जल से भींगा शरीरवाला वानर प्राण से रहित होकर गिर गया और वह उस देह को त्याग कर पापों से रहित होकर तत्काल दिव्य आभूषणों से भूषित दिव्य देह को प्राप्त किया जो कि नीलकमल के दल के समान श्यामवर्ण, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर चमकते हुए रत्नों से जटित किरीटधारी, सुन्दर शोभमान मत्स्यकुण्डल वाला, शोभमान पवित्र पीतवस्त्रधारी, कमर में रत्नों से जटित मेखला वाला शोभमान बाजूबन्द, कंकण, अँगूठी, हार से शोभित, नीलवर्ण के टेढ़े चिकने बालों से आवृत सुन्दर मुख था।



उसी समय शीघ्र वहाँ वैष्णवों से युक्त विमान आया जिसमें भेरी, मृदंग, पटह, वेणु, वीणा का महान्‌ शब्द हो रहा है, और देवांगनाओं का नाच हो रहा है, गन्धर्व किन्नर के सुन्दर गान हो रहे हैं ऐसे उस विमान को महाभाग दिव्यदेहधारी वानर देखकर अत्यन्त विस्मय को प्राप्त हो कहने लगा कि पातकी मेरे को यह सुख कैसे हुआ? यह विमान-सुख बड़े पुण्यात्मा को ही होना उचित है।



इसके बाद कोई देवांगना उसके ऊपर चन्द्रमा के समान श्वेकत छत्र को धारण करती हुई। कोई दो अप्सरायें हर्ष से उसको दोनों तरफ चामर को डुला रही हैं। कोई पान हाथ में लिये खड़ी है और उसके सामने अप्सरायें नाच कर रही हैं। कोई गंगाजल से भरी हुई झारी को लिये खड़ी है, कोई उसके सामने खड़ी गाने बजाने में तत्पर हैं। इस प्रकार उस वैभव को देखकर चित्र में बने हुए मे समान निश्चल हो गया।



यह क्या है? मुझ दुष्ट पातकी को किस पुण्य से यह सब प्राप्त हुआ, मेरा कुछ भी पुण्य नहीं है जिसमें मैं हरि भगवान्‌ के परम पद को जाऊँ।



श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार तर्क करते हुए कदर्य ने सुख का बहुत बड़ा खजाना दिव्य विमान को सामने देखकर आश्चर्य किया। बाद हरिभटों ने उस कदर्य का हार्दिक अभिप्राय जानकर उसके सामने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उसके चरणों में नमस्कार कर वानरशरीर को त्यागे हुए उस कदर्य को सुन्दर वचन कहा।



इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे श्रीपुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टाविंशोऽध्यायः ॥२८॥