पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 1 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 1)
कल्पवृक्ष के समान भक्तजनों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावनबिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार करता हूँ।
नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ।
यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे गये बहुत से मुनि आये। जैसे, असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत, आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य, गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु, कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद, जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गव, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द, विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि, महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय, ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु, शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग, श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि।
शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले, ब्रह्मनिष्ठ, संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले। नैमिषारण्य में आकर यज्ञ करने को तत्पर हुए। इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूत जी अपने आश्रम से निकले, और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा। संसार समुद्र से पार करने वाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये, पहले से जहाँ वे इकट्ठे थे वहीं प्रसन्नचित्त सूतजी भी जा पहुँचे।
इसके अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण करने वाले, प्रसन्नमुख, शान्त, परमार्थ विशारद, समग्र गुणों से युक्त, सम्पूर्ण आनन्दों से परिपूर्ण, ऊर्ध्वपुण्ड्रघारी, राम नाम मुद्रा से युक्त, गोपीचन्दन मृत्तिका से दिव्य, शँख, चक्र का छापा लगाये, तुलसी की माला से शोभित, जटा-मुकुट से भूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले, अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले, भगवान् के परम मन्त्र को जपते हुए समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेन्द्रिय तथा क्रोध को जीते हुए, जीवन्मुक्त, जगद्गुरु श्री व्यास की तरह और उन्हीं की तरह निःस्पृह् आदिगुणों से युक्त उनको देख उस नैमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षिगण सहसा उठ खड़े हुए।
विविध प्रकार की विचित्र कथाओं को सुनने की इच्छा प्रगट करने लगे। तब नम्रस्वभाव सूतजी प्रसन्न होकर सब ऋषियों को हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करने लगे।
ऋषि लोग बोले, 'हे सूतजी! आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो। हम लोगों ने आपके योग्य सुन्दर आसन लगाया है। हे महाभाग! आप थके हैं, यहाँ बैठ जाइये।'
ऐसा सब ब्राह्मणों ने कहा। इस प्रकार बैठने के लिए कहकर जब सब तपस्वी और समस्त जनता बैठ गयी तब विनयपूर्वक तपोवृद्ध समस्त मुनियों से बैठने की अनुमति लेकर प्रसन्न होकर आसन पर सूतजी बैठ गये।
तदनन्तर सूत को सुखपूर्वक बैठे हुए और श्रमरहित देखकर पुण्यकथाओं को सुनने की इच्छा वाले समस्त ऋषि यह बोले, 'हे सूतजी! हे महाभाग! आप भाग्यवान् हैं। भगवान् व्यास के वचनों के हार्दि्क अभिप्राय को गुरु की कृपा से आप जानते हैं। क्या आप सुखी तो हैं? आज बहुत दिनों के बाद कैसे इस वन में पधारे? आप प्रशंसा के पात्र हैं। हे व्यासशिष्यशिरोमणे! आप पूज्य हैं। इस असार संसार में सुनने योग्य हजारों विषय हैं परन्तु उनमें श्रेयस्कर, थोड़ा-सा और सारभूत जो हो वह हम लोगों से कहिये। हे महाभाग! संसार-समुद्र में डूबते हुओं को पार करने वाला तथा शुभफल देने वाला, आपके मन में निश्चित विषय जो हो वही हम लोगों से कहिये।
हे अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुओं को ज्ञानरूप चक्षु देने वाले! भगवान् के लीलारूपी रस से युक्त, परमानन्द का कारण, संसाररूपी रोग को दूर करने में रसायन के समान जो कथा का सार है वह शीघ्र ही कहिये।'
इस प्रकार शौनकादिक ऋषियों के पूछने पर हाथ जोड़कर सूतजी बोले, 'हे समस्त मुनियों! मेरी कही हुई सुन्दर कथा को आप लोग सुनिये। हे विप्रो! पहले मैं पुष्कर तीर्थ को गया, वहाँ स्नान करके पवित्र ऋषियों, देवताओं तथा पितरों को तर्पणादि से तृप्त करके तब समस्त प्रतिबन्धों को दूर करने वाली यमुना के तट पर गया, फिर क्रम से अन्य तीर्थों को जाकर गंगा तट पर गया। पुनः काशी आकर अनन्तर गयातीर्थ पर गया। पितरों का श्राद्ध कर तब त्रिवेणी पर गया। तदनन्तर कृष्णा के बाद गण्डकी में स्नान कर पुलह ऋषि के आश्रम पर गया। धेनुमती में स्नान कर फिर सरस्वती के तीर पर गया, वहाँ हे विप्रो! त्रिरात्रि उपवास कर गोदावरी गया। फिर कृतमाला, कावेरी, निर्विन्ध्या, ताम्रपर्णिका, तापी, वैहायसी, नन्दा, नर्मदा, शर्मदा, नदियों पर गया। पुनः चर्मण्वती में स्नान कर पीछे सेतुबन्ध रामेश्वर पहुँचा। तदनन्तर नारायण का दर्शन करने के हेतु बदरी वन गया। तब नारायण का दर्शन कर, वहाँ तपस्वियों को अभिनन्दन कर, पुनः नारायण को नमस्कार कर और उनकी स्तुति कर सिद्धक्षेत्र पहुँचा। इस प्रकार बहुत से तीर्थों में घूमता हुआ कुरुदेश तथा जांगल देश में घूमता-घूमता फिर हस्तिनापुर में गया।
हे द्विजो! वहाँ यह सुना कि राजा परीक्षित राज्य को त्याग बहुत ऋषियों के साथ परम पुण्यप्रद गंगातीर गये हैं, और उस गंगातट पर बहुत से सिद्ध, सिद्धि हैं भूषण जिनका ऐसे योगिलोग और देवर्षि वहाँ पर आये हैं उसमें कोई निराहार, कोई वायु भक्षण कर, कोई जल पीकर, कोई पत्ते खाकर, कोई श्वास ही को आहार कर, कोई फलाहार कर और कोई-कोई फेन का आहार कर रहते हैं। हे द्विजो! उस समाज में कुछ पूछने की इच्छा से हम भी गये। वहाँ ब्रह्मस्वरूप भगवान् महामुनि, व्यास के पुत्र, बड़े तेजवाले, बड़े प्रतापी, श्रीकृष्ण के चरण-कमलों को मन से धारण किये हुए श्रीशुकदेव जी आये। उन १६ वर्ष के योगिराज, शँख की तरह कण्ठवाले, बड़े लम्बे, चिकने बालों से घिरे हुए मुखवाले, बड़ी पुष्ट कन्धों की सन्धिवाले, चमकती हुए कान्तिवाले, अवधूत रूपवाले, ब्रह्मरूप, थूकते हुए लड़कों से घिरे हुए मक्षिकाओं से जैसे मस्त हस्ती घिरा रहता है उसी प्रकार धूल हाथ में ली हुई स्त्रियों से घिरे हुए, सर्वांग धूल रमाए महामुनि शुकदेव को देख सब मुनि प्रसन्नता पूर्वक हाथ जोड़ कर सहसा उठकर खड़े हो गये।
इस प्रकार महामुनियों द्वारा सत्कृत भगवान् शुक को देखकर पश्चात्ताप करती (पछताती) हुई स्त्रियाँ और साथ के बालक जो उनको चिढ़ा रहे थे, दूर ही खड़े रह गये और भगवान् शुक को प्रणाम करके अपने-अपने घरों की ओर चले गये।
इधर मुनि लोगों ने शुकदेव के लिए बड़ा ऊँचा और उत्तम आसन बिछाया। उस आसन पर बैठे हुए भगवान् शुक को कमल की कर्णिका को जैसे कमल के पत्ते घेरे रहते हैं उसी प्रकार मुनि लोग उनको घेर कर बैठ गये।
यहाँ बैठे हुए ज्ञानरूप महासागर के चन्द्रमा भगवान् महामुनि व्यासजी के पुत्र शुकदेव ब्राह्मणों द्वारा की हुई पूजा को धारण कर तारागणों से घिरे हुए चन्द्रमा की तरह शोभा पा रहे थे।
इति बृहन्नारदीये श्रीपुरुषोत्तममाहात्म्ये प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
॥ हरिः शरणम् ॥
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