पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 9 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 9)
सूतजी बोले, 'तदनन्तर विस्मय से युक्त नारद मुनि ने मेधावी ऋषि की कन्या का अद्भुत वृत्तान्त पूछा।
नारदजी बोले, 'हे मुने! उस तपोवन में मेधावी की कन्या ने बाद में क्या किया? और किस मुनिश्रेष्ठ ने उसके साथ विवाह किया?
श्रीनारायण बोले, 'अपने पिता को स्मरण करते-करते और बराबर शोक करते-करते उस घर में कुछ काल उस कन्या का व्यतीत हुआ। यूथ से भ्रष्ट हुई हरिणी की तरह घबड़ाई, शून्य घर में रहनेवाली, दुःखरूप अग्नि से उठी हुई भाफ द्वारा बहते हुए अश्रुनेत्र वाली, जलते हुए हृत् कमल वाली, दुःख से प्रतिक्षण गरम श्वास लेनेवाली, अतिदीना, घिरी हुई सर्पिणी की तरह अपने घर में संरुद्ध, अपने दुःख को सोचती और दुःख से मुक्त होने के उपाय को न देखती हुई उस कृशोदरी को उसके शुभ भविष्य की प्रेरणा से सान्त्वना देने के लिए उस वन में अपनी इच्छा से ही परक्रोधी, 'जिनको देखने से ही इन्द्र भयभीत होते हैं, 'ऐसे, जटा से व्याप्त, साक्षात् शंकर के समान भगवान् दुर्वासा ऋषि आये।
हे नारद! भगवान् कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजेन्द्र! वह दुर्वासा आये जिसको कि आपकी माता कुन्ती ने बालापन में प्रसन्न किया था। तब उन सुपूजित महर्षि ने देवताओं को आकर्षण करने वाली विद्या उन्हें दी और हे भूपाल! जिन्होंने सब देवताओं से नमस्कार किए जाने वाले मुझको भी रुक्मिणी के साथ रथ में बैलों की जगह जोता।
दुर्वासा को बैठाकर रथ खींचते हुए जब हम दोनों मार्ग चलने लगे तब चलते-चलते मार्ग में अति तीव्र प्यास से सूख गये थे तालु और ओष्ठ जिस रुक्मिणी के ऐसी जल चाहने वाली रुक्मिणी ने जब मुझे सूचित किया तब कन्धे पर रथ की जोत को रखे हुए चलते-चलते ही पाँव के अग्रभाग से पृथ्वी को दबा कर रुक्मिणी के प्रेम के वशीभूत मैंने भोगवती नाम की नदी को उत्पन्न किया। तब वही भोगवती ऊपर से बहने लगी। अनन्तर उसी के जल से, हे महाराज! रुक्मिणी की प्यास को मैंने बुझाया। इस प्रकार रुक्मिणी की प्यास का बुझना देख उसी क्षण अग्नि की तरह दुर्वासा क्रोध से जलने लगे और प्रलय की अग्नि के समान उठकर दुर्वासा ने शाप दिया। बोले, 'बड़ा आश्चर्य है, हे श्रीकृष्ण! रुक्मिणी तुमको सदा अत्यन्त प्रिय है, अतः स्त्री के प्रेम से युक्त तुमने मेरी अवज्ञा कर अपना महत्व दिखलाते हुए इस प्रकार से उसे पानी पिलाया। अतः तुम दोनों का वियोग होगा, इस प्रकार उन्होंने शाप दिया था।
हे युधिष्ठिर! वही यह दुर्वासा मुनि हैं। साक्षात् रुद्र के अंश से उत्पन्न, दूसरे कालरुद्र की तरह, महर्षि अत्रि के उग्र तपरूप कल्पवृक्ष के दिव्य फल। पतिव्रताओं के सिर के रत्न, अनुसूया भगवती के गर्भ से उत्पन्न, अत्यन्त मेधायुक्त दुर्वासा नाम के ऋषि।
अनेक तीर्थों के जल से भींगी हुई जटा से भूषित सिर वाले, साक्षात् तपोमूर्ति दुर्वासा ऋषि को आते देखकर कन्या ने शोकसागर से निकल कर धैर्य से मुनि के चरणों में प्रार्थना की। प्रार्थना करने के बाद जैसे बाल्मीकि ऋषि को जानकी अपने आश्रम में लाई थीं वैसे ही यह भी दुर्वासा को अपने घर में लाकर अर्ध्य, पाद्य और विविध प्रकार के जंगली फलों और पुष्पों से स्वागत के लिए आज्ञा लेकर आदरपूर्वक पूजन कर तदनन्तर हे राजन्! यह बाला बोली।
कन्या बोली, 'हे महाभाग! हे अत्रि कुल के सूर्य! आपको प्रणाम है। हे साधो! मेरी अभाग्या के घर में आज आपका शुभागमन कैसे हुआ? हे मुने! आपके आगमन से आज मेरा भाग्योदय हुआ है अथवा मेरे पिता के पुण्य के प्रवाह से प्रेरित मुझे सान्त्वना देने के लिये ही आप मुनिसत्तम आये हैं। आप जैसे महात्माओं के पाँव की धूल जो है वह तीर्थरूप है उस धूल का स्पर्श करने वाली मैं अपना जन्म आज सफल कर सकी हूँ, आज मेरा व्रत भी सफल है। आप जैसे पुण्यात्मा के जो मुझे आज दर्शन हुए। अतः आज मेरा उत्पन्न होना और मेरा पुण्य सफल है।'
ऐसा कहकर वह कन्या दुर्वासा के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी। तब भगवान् शंकर के अंश से उत्पन्न दुर्वासा मुनि मन्द हास्य युक्त बोले।
दुर्वासा बोले, 'हे द्विजसुते! तू बड़ी अच्छी है तूने अपने पिता के कुल को तार दिया। यह मेधावी ऋषि के तप का फल है। जो उन्हें तेरी ऐसी कन्या उत्पन्न हुई। तेरी धर्म में तत्परता जान कैलास से मैं यहाँ आया और तेरे घर आकर तेरे द्वारा मेरा पूजन हुआ।
हे वरारोहे! मैं शीघ्र ही बदरिकाश्रम में मुनीश्वर सनातन, नारायण, देव के दर्शन के लिये जाऊँगा जो प्राणियों के हित के लिए अत्यन्त उग्र तप कर रहे हैं।'
कन्या बोली, 'हे ऋषे! आपके दर्शन से ही मेरा शोकसमुद्र सूख गया। अब इसके बाद मेरा भविष्य उज्ज्वल है; क्योंकि आपने मुझे सान्त्वना दी, हे मुने! मेरी उस प्रादुर्भूत बड़ी भारी ज्वाला युक्त दुःख रूप अग्नि को क्या आप नहीं जानते हैं? हे दयासिन्धो! हे शंकर! उस दुःखाग्नि को शान्त कीजिये। मेरे विचार से हर्ष का कारण मुझे कुछ भी दिखलाई नहीं देता। न मुझे माता है, न पिता, न तो भाई है, जो धैर्य प्रदान करता, अतः दुःख समुद्र से पीड़ित मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ?
जिस-जिस दिशा में मैं देखती हूँ वह-वह दिशा मुझे शून्य ही प्रतीत होती है, इसलिये हे तपोनिधे! मेरे दुःख का निस्तार आप शीघ्र करें। मेरे साथ विवाह करने के लिए कोई भी नहीं तैयार होता है। इस समय मेरा विवाह न हुआ तो मैं फिर वृषली शूद्रा हो जाऊँगी यह मुझे बड़ा भय है। इसी भय से न मुझे निद्रा आती है और न भोजन में मेरी रुचि होती है, हे ब्रह्मन्! अब मैं शीघ्र ही मरने वाली हूँ, यह मेरा इस समय निश्चय है।'
ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई कन्या दुर्वासा के सामने चुप हो गयी तब दुर्वासा कन्या का दुःख दूर करने का उपाय सोचने लगे।
श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार मुनि कन्या के वचन सुनकर और इसका अभिप्राय समझ कर बड़े क्रोधी मुनिराज दुर्वासा ने उस कन्या का कुछ हित विचार पूर्ण कृपा से उसे देखकर सारभूत उपाय बतलाया।
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये नवमोऽध्यायः ॥९॥
आर्य समाज प्रेरक भजन (Arya Samaj Motivational Bhajans)
भजन: गाइये गणपति जगवंदन (Gaiye Ganpati Jagvandan)
हे दुःख भन्जन, मारुती नंदन: भजन (Bhajan: Hey Dukh Bhanjan Maruti Nandan)
पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 2 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 2)
जबसे बरसाने में आई, मैं बड़ी मस्ती में हूँ! (Jab Se Barsane Me Aayi Main Badi Masti Me Hun)
भजन: चलो मम्मी-पापा चलो इक बार ले चलो! (Chalo Mummy Papa Ik Baar Le Chalo)
जैसे तुम सीता के राम: भजन (Jaise Tum Sita Ke Ram)
भजन: हे भोले शंकर पधारो (Hey Bhole Shankar Padharo)
देवोत्थान / प्रबोधिनी एकादशी व्रत कथा (Devutthana Ekadashi Vrat Katha)
जन्माष्टमी भजन: ढँक लै यशोदा नजर लग जाएगी (Dhank Lai Yashoda Najar Lag Jayegi)
आज बिरज में होरी रे रसिया: होली भजन (Aaj Biraj Mein Hori Re Rasiya)
भजन: मुखड़ा देख ले प्राणी, जरा दर्पण में (Mukhda Dekh Le Prani, Jara Darpan Main)