पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 18 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 18)
नारद जी बोले, 'हे तपोनिधे! उसके बाद साक्षात् भगवान् बाल्मीकि मुनि ने राजा दृढ़धन्वा को क्या कहा सो आप कहिये।
श्रीनारायण बोले, 'वह राजर्षि दृढ़धन्वा अपने पूर्व-जन्म का वृ्त्तान्त सुनकर आश्चर्य करता हुआ मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि से पूछता है।
दृढ़धन्वा बोला, 'हे ब्रह्मन्! आपके नवीन-नवीन सुन्दर अमृत के समान वचनों को बारम्बार पान कर भी मैं तृप्त नहीं हुआ। इसलिए पुनः उसके बाद का वृतान्त कहिये।
बाल्मीकि मुनि बोले, 'हे जगतीपते! इस प्रकार उस ब्राह्मण के विलाप करते समय गर्जना से दशो दिशाओं को गुँञ्जित करता हुआ असमय में होने वाला मेघ आया, पर्वतों को कँपाने के समान तीक्ष्ण स्पर्शों वाला वायु बहने लगा। और बिजली अत्यन्य चमकती हुई अपनी आवाज से दश दिशाओं को पूर्ण करती हुई। इस तरह एक मास तक वृष्टि हुई जिस जल से पृथ्वी भर गई परन्तु पुत्र-शोक रूप अग्नि के ताप से सन्तप्त वह ब्राह्मण कुछ भी नहीं जान सका।
न तो जलपान किया और न भोजन ही किया। केवल हे पुत्र! हे पुत्र! इस प्रकार कहकर विलाप करते हुए ब्राह्मण का उस समय जो मास व्यतीत हुआ, वह श्रीकृष्णचन्द्र का प्रिय पुरुषोत्तम मास था! सो न जानते हुए उस ब्राह्मण को पुरुषोत्तम मास का सेवन हो गया। उस पुरुषोत्तम मास के सेवन से अत्यन्त प्रसन्न नूतन मेघ के समान श्यामवर्ण, वनमाला से भूषित हरि भगवान् स्वयं प्रगट हुए।
जगत् के नाथ हरि भगवान् के प्रगट होने पर मेघसमूह गायब हो गया। उस ब्राह्मण ने पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र को देखा। दर्शन होने के साथ ही गोद में लिए हुए पुत्र के शरीर को जमीन पर रख कर स्त्री सहित ब्राह्मण श्रीकृष्ण भगवान् को दण्डवत् नमस्कार करता हुआ, हाथ जोड़ कर श्रीकृष्ण भगवान् के सामने खड़ा होकर श्रीकृष्ण भगवान् ही हमारे रक्षक हों ऐसा विचार करता हुआ, भगवान् भी पुरुषोत्तम की सेवा से प्रसन्न हो अमृत की वृष्टि करनेवाली अत्यन्त मधुर वाणी से बोले।
श्रीहरि भगवान् बोले, 'भो भो सुदेव! तुम धन्य हो, इस समय आप भाग्यवान् हो, तुम्हारे भाग्य के वर्णन करने में त्रलोक्य में कौन समर्थ है? हे वत्स! हे तपोधन! जो तुम्हारा होने वाला है उसको हम कहेंगे, तुम सुनो। हे ब्राह्मण! बारह हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र तुमको होगा। इसके बाद तुमको पुत्र से होने वाले सुख में सन्देह नहीं है। हे द्विजात्तम! प्रसन्न मन से मैंने यह पुत्र तुमको दिया है। हमारे प्रसाद से होने वाले तुम्हारे पुत्र-सुख को देखकर हे द्विजोत्तम! देवता, गन्धर्व और मनुष्य लोग पुत्र-सुख की इच्छा करने वाले होंगे। इस विषय में तुमसे प्राचीन इतिहास मैं कहूँगा, जिस इतिहास को पहले मार्कण्डेय मुनि ने राजा रघु से कहा था।
प्रथम कोई श्रेष्ठ मनवाले धनुर्नामक मुनीश्वर लोकों को पुत्र रूप मानसिक चिन्ता से जले हुए देखकर दुःखित हुए, और अमर पुत्र की इच्छा करके दारुण तप करने लगे। हजार वर्ष बीत जाने पर धनुर्मुनि से देवता लोग बोले, 'हे मुनीश्व्र! तुम्हारे कठिन तप से हम सब प्रसन्न हैं इसलिए अपने मन के अनुसार श्रेष्ठ वर को माँगो।
श्रीनारायण बोले, 'देवताओं के अमृत तुल्य इस वचन को सुनकर उन तपोधन धनुर्नामक मुनि ने बुद्धिमान् और अमर पुत्र को माँगा। उस ब्राह्मण से देवताओं ने कहा कि पृथिवी में ऐसा पुत्र नहीं है। तब धनुर्मुनि ने देवताओं से कहा कि अच्छा ऐसा पुत्र दो जिसके आयु की मर्यादा बँधी हो। देवताओं ने कहा कि कैसी मर्यादा चाहिये? कहो। इस पर उस मुनि ने भी कहा कि यह महान् पर्वत जब तक रहे तब तक उसकी आयु होवे। ‘ऐसा ही हो’, इस प्रकार कह कर इन्द्रादि देवता स्वर्ग को चले गये। धनुशर्मा ने थोड़े समय में वैसा ही पुत्र को प्राप्त किया।
उस मुनि का पुत्र आकाश में चन्द्र के समान बढ़ने लगा। सोलहवें वर्ष के होने पर मुनीश्वर ने पुत्र से कहा, 'हे वत्स! ये मुनि लोग कभी भी अपमान करने योग्य नहीं हैं। इस तरह शिक्षा देने पर भी उस पुत्र ने मुनियों का अनादर किया। आयु की मर्यादा के बल से उन्मत्त उसने ब्राह्मणों का अपमान किया। किसी समय परम क्रोधी महिष नामक मुनि ने विधि से शुभ फल देने वाले शालग्राम शिला का पूजन किया। उसी समय उस बालक ने वहाँ आकर शालग्राम की शिला को जल्दी से लेकर अपनी चंचलता के कारण हँसता हुआ पूर्ण जल वाले कूप में छोड़ दिया।
क्रोध से युक्त दूसरे कालरुद्र के समान महिष मुनि ने उस धनुर्मुनि के पुत्र को शाप दिया कि यह अभी मर जाय। परन्तु उसे मृत हुये न देखकर मन में मृत्यु के कारण का ध्यान किया। देवताओं ने इस धनुर्मुनि के पुत्र को निमित्तायु वाला बनाया है। इस तरह चिन्ता करते हुए महिष मुनि ने लम्बी साँस ली। जिससे कई कोटि महिष पैदा हो गये और उन महिषों ने पर्वत को टुकड़ा-टुकड़ा कर दिया। उसी समय मुनि का अत्यन्त दुर्मद लड़का मर गया।
धनुर्मुनि ने अत्यन्त दुःख से बार-बार विलाप किया। बाद अनेक प्रकार विलाप कर पुत्र के शरीर को लेकर, पुत्र के दुःख से अत्यन्त पीड़ित हो चिता की अग्नि में प्रवेश किया। इस प्रकार हठ से पुत्र प्राप्त करने वाले कहीं भी सुख को नहीं पाते हैं।
हे तपोधन! गरुड़जी ने यह जो पुत्र दिया है इससे संसार में तुम प्रशंसनीय पुत्रवान् होगे। हे अनघ! मैंने प्रसन्न होकर पुरुषोत्तम के माहात्म्य से इस पुत्र को चिरस्थायी किया है, यह तुमको सुख देने वाला हो। पुत्र के साथ सर्वदा गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने के बाद तुम ब्रह्मलोक को जाओगे, वहाँ उत्तम सुख देवताओं के वर्ष से हजार वर्ष पर्यन्त भोग कर पृथ्वी पर आओगे हे द्विजोत्तम! यहाँ तुम चक्रवर्ती राजा होगे। दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध तथा सेना, सवारी से युक्त हो दस हजार वर्ष पर्यन्त पृथिवी के राजा का सुख भोगोगे। इन्द्र के पद से अधिक अखण्ड बल और ऐश्वर्य होवेगा। उस समय यह गौतमी स्त्री पटरानी होवेगी। नित्य पतिसेवा में तत्पर और गुणसुन्दरी नाम वाली होगी। राजनीति विशारद तुमको चार पुत्र होंगे, और सुन्दर मुखवाली महाभागा सुशीला नाम की कन्या होगी।
हे महाभाग! सुरों और असुरों को दुर्लभ संसार के सुखों को भोगकर तुम संसार रूपी समुद्र के पार करने वाले विष्णु भगवान् को जब भूल जाओगे तब हे विप्र! उस समय वन में यह तुम्हारा पुत्र शुक पक्षी होकर वट वृक्ष के ऊपर बैठ कर, वैराग्य पैदा करने वाले श्लोेक को बार-बार पढ़ता हुआ तुमको इस प्रकार बोध करायेगा। शुक पक्षी के वचन को सुनकर दुःखित मन होकर घर आओगे। संसार के विषय सुखों को छोड़कर चिन्तारूपी समुद्र में मग्न, हे भूसुर! तुमको बाल्मीकि मुनि आकर ज्ञान करायेंगे। उनके वचन से निःसन्देह हो शरीर को छोड़कर हरि भगवान् के पद को दोनों स्त्री-पुरुष तुम जाओगे, 'जो कि पद आवागमन से रहित कहा गया है।
इस प्रकार महाविष्णु के कहने पर वह ब्राह्मण-बालक उठ खड़ा हुआ। वे दोनों स्त्री-पुरुष ब्राह्मण पुत्र को उठा हुआ देख कर अत्यन्त आनन्दित हो गये। सब देवता लोग भी सन्तुष्ट होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे। शुकदेव ने भी श्रीहरि को और माता-पिता को प्रणाम किया। उस ब्राह्मण को पुत्र के साथ देख कर गरुड़जी भी अत्यन्त प्रसन्न हुए।
उस समय चकित होकर ब्राह्मण ने श्रीहरि भगवान् को नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर हृदय में होने वाले सन्देह को दूर करने ले लिए हर्ष के कारण गद्गद वचन से जगदीश्वर से बोला, 'हे हरे! मैंने चार हजार वर्ष पर्यन्त लगातार अत्यन्त दुष्कर तप किया उस समय मेरे को आपने वहाँ आकर जो कठोर वचन कहा कि हे वत्स! हमने अच्छी तरह देखा है। इस समय तुमको निश्चय पुत्र नहीं है। हे हरे! उस वचन का उल्लंघन कर मेरे मृत पुत्र को जीवित करने का कारण क्या है? सो आप कहिये।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥
राम नाम के हीरे मोती, मैं बिखराऊँ गली गली। (Ram Nam Ke Heere Moti Main Bikhraun Gali Gali)
राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर ( RadhaKrishn Prana Mora Yugal Kishor)
जय रघुनन्दन, जय सिया राम: भजन (Jai Raghunandan Jai Siya Ram Bhajan)
गौरी के नंदा गजानन, गौरी के नन्दा: भजन (Gauri Ke Nanda Gajanand Gauri Ke Nanda)
सपने में सखी देख्यो नंदगोपाल: भजन (Sapane Me Sakhi Dekhyo Nandgopal)
रामजी भजन: मंदिर बनेगा धीरे धीरे (Ramji Ka Mandir Banega Dheere Dheere)
दुनिया बावलियों बतलावे.. श्री श्याम भजन (Duniyan Bawaliyon Batlawe)
होली खेलन आयो श्याम, आज: होली भजन (Holi Khelan Aayo Shyam, Aaj)
भजन: अयोध्या करती है आव्हान.. (Ayodhya Karti Hai Awhan)
आरती: श्री राणी सती दादी जी (Shri Rani Sati Dadi Ji)
अजा एकादशी व्रत कथा! (Aja Ekadashi Vrat Katha)
मुकुन्द माधव गोविन्द बोल - भजन (Mukund Madhav Govind Bol Bhajan)