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अभिनव की पलकें बार-बार आर्द्र होकर छलक उठती थीं. जया का मन पति के प्रति अपार स्नेह और आदर से भर उठा था. अपने मूल्यों, संस्कारों और कर्त्तव्यों के प्रति कितनी चाह है इनके मन में. उसने पति के हाथ पर अपनी हथेली रखते हुए स्नेहार्द्र कंठ से कहा था, “मैं आपको कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगी.” जया को भी जैसे ममता की वो घनी छांव मिल गयी थी, जिसके लिये वह सारी ज़िंदगी तरसती रही थी. मायके में केवल पुरुष ही थे… मां उसे जन्म देकर परलोक सिधार गयी थीं. तीन बड़े भाइयों में से किसी का विवाह भी तो अब तक नहीं हुआ था. जया के लिये मां, बहन, भाभी जैसे सारे पवित्र रिश्ते मानो एकत्र समाहित होकर आद्या भाभी के रूप में ही ढल गये थे. एक दिन जया को टोकते हुए भाभी ने कहा था, “दुल्हन! तुमने ‘दुर्गा सप्तशति’ की एक पंक्ति पढ़ी है कभी? ‘आर्या दुर्गा जया च आद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी…’ अर्थात् आद्या और जया दोनों मां दुर्गा के ही नाम हैं. जितनी निकटता इन दोनों नामों में है, उतनी ही हम दोनों बहनों में है न? तुम मुझे भाभी नहीं, दीदी कहा करो.” “ठीक है, पर आप भी मुझे दुल्हन नहीं जया कहेंगी?” कहकर वो उनके गले से लिपट गयी थी. घर संवारना हो या मेहमानों की आवभगत, किसी त्योहार की तैयारी हो या सुस्वादु स्वादिष्ट व्यंजन बनाना, आद्या दीदी की सुघड़ता सर्वत्र दिखती थी. जया को उनकी स़िर्फ एक बात अच्छी नहीं लगती थी- उनका प्रत्येक परिस्थिति में मौन रहना. अभिनव के कई रिश्तेदार इसी शहर में थे. किसी न किसी चाची, भाभी, बुआ या दीदी का आना-जाना लगा ही रहता. सब की बातों से यही लगता कि दुनिया में दीदी जैसी अभागिन दूसरी कोई और नहीं. ऐसे अनुपम रूप के साथ ऐसा काला भाग्य ईश्‍वर किसी दुश्मन को भी न दे. जो भी आता ढेरों नसीहतों के साथ झूठे दुःखों की पोटली जबरन दीदी के हाथों में थमाकर चला जाता. जब किसी की बात उनके अंतर्मन में गहरे तक चुभ जाती तो वो घंटों अपने कमरे में बंद रहतीं. लाख दस्तक देने पर भी नहीं खोलती थीं. जया का जी चाहता कि वो भी उन सबको खरी-खोटी सुना डाले, पर दीदी की भीगी मौन आंखों में मुखर होता एक संकेत उसे इस सोच से विरत बना डालता. पर एक दिन सबके जाने के बाद वो फट पड़ी थी. “आप सबकी बेकार की बातों को चुपचाप क्यों सुन लेती हैं?”