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“पगली, एक एकाकी स्त्री को बहुत कुछ भोगना पड़ता है… असंख्य दंश सहने पड़ते हैं… यही उसकी नियति है, किसी को व्यर्थ दोष देना ठीक नहीं है.” वो बिलख पड़ी थीं और उस दिन आंसुओं के साथ उनकी संपूर्ण अव्यक्त व्यथा भी बह निकली थी, जैसे शब्दों के रूप में ढलकर आकार पाने के लिये आतुर और बेताब हो उठी हों. “अभि के भैया क्या गये प्रारब्ध के भंवर में मेरी सारी उमंगें, सारे सुख विलीन हो गये. विषकन्या, अभागिन सुन-सुन कर मैं जीवन से विरक्त-सी होती जा रही थी. जिस सौंदर्य को ईश्‍वर का वरदान माना जाता है, वही सौंदर्य अभिशाप लगने लगा था. आत्महत्या कर लेने का विचार तेज़ी से मन-मस्तिष्क में जड़ें जमाता जा रहा था कि अचानक…. नियति ने एक तुरूप का पत्ता और फेंका. अनाथ अभि की मासूम भोली सूरत ने मुझे झकझोर कर जगा दिया. मुझे लगा जैसे मेरा जीवन अपना कहां रहा, वो तो अभि की आंसू भरी आंखों में कब का डूब गया और मेरा पुनर्जन्म हुआ है, स़िर्फ अभि की परवरिश के लिये बस, तब से हृदय पर पत्थर रखकर जीवन से जंग शुरू कर दी. सारी उमंगों और ख़ुशियों के साथ-साथ मनोगत पीड़ा को भी दिल की दहलीज़ के उस पार झटक दिया. कोरे दिल में अब केवल अभि का बेहतर भविष्य और उससे जुड़ी चिंताएं रह गयी थीं. ऐसे में जीवन के इस दुर्गम मोड़ पर बी.ए. की डिग्री काम आयी और एक स्कूल में नौकरी मिल गयी. जीवन एक लीक पर सरकने लगा, जहां सर्वत्र अजीब-सा सन्नाटा था और थीं ढेरों क़िताबें…. मेरे अकेलेपन की साथी. अभि की शरारतें, बचपना, रूठना, ज़िद करना, हंसना-मुस्कुराना इन अमूल्य पलों को अपने आंचल में सहेजती मैं कब, न जाने किस क्षण से… उसकी मां बनती चली गयी…. और बचपन की दहलीज़ लांघकर अभि ने युवावस्था में क़दम रख दिया है, इसका भान मुझे तब हुआ जब एक दिन शांता बुआ ने कहा, “बहू! समय भी न जाने कैसे बीत जाता है… देखते-देखते अभि इतना बड़ा हो गया. पर उसका बचपना देखो, हमेशा तुम्हारे पीछे-पीछे भागता रहता है.” बुआ की बात मुंह में ही रह गयी थी कि अचानक आंधी की तरह कमरे में दाख़िल हुए अभि ने हमेशा की तरह मेरा हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा था, “मुझे बहुत भूख लगी है भाभी. वैसे खीर तो आपने बनाई ही होगी, उठिये जल्दी, उठिये.” मैं बुआ के सामने न जाने क्यों असहज हो उठी थी. बुआ की तीखी नज़रें अभिनव की एक-एक हरकत पर इस तरह गड़ी हुई थीं, जैसे उन्हें किसी महीन-सी वस्तु की तलाश हो. उनके चेहरे पर कौंधती कसैली मुस्कान से मेरा कलेजा दहल गया था. हे ईश्‍वर! बुआ की आंखें कहीं वही तो नहीं खोज रहीं, जो युग-युगांतर से एक स्त्री और पुरुष के बीच तलाशा जाता रहा है? वही आदिम सोच कहीं बुआ के मन-मस्तिष्क पर भी तो…? मेरा सर्वांग कांप उठा था जया… उस दिन मैंने पहली बार गौर से अभि को देखा.. अठारह वर्ष की परिधि लांघती उम्र, गोरा-चिट्टा, भरा-भरा शरीर, लंबा-चौड़ा क़द, चेहरे पर मूंछों की मद्धिम-सी रेखा, बड़ी-बड़ी आंखों में पड़ते गहरे लाल डोरे, बिल्कुल अपने भैया जैसा ही तो लगने लगा था अभिनव… और मैं उसे अब तक बच्चा ही समझ रही थी. बुआ की नज़रें उस दिन कलेजे में तीक्ष्ण तीर की तरह चुभी थीं और मन में कोलाहल मच गया था. उस दिन के बाद जब भी अभिनव मेरे कंधों पर स्नेहवश झूलता या मेरा हाथ पकड़कर कुछ कहना चाहता, मैं उसे ज़ोर से डपट देती, “छोड़ो ये बचपना…” वो हंसते हुए कहता, “आप ही तो कहती थीं न मां के लिए उसका बच्चा कभी बड़ा नहीं होता, फिर अब क्या हो गया?” मैं मौन रह जाती… क्या कहती और कैसे कहती कि भले ही मैं तुम्हें कोखजाए पुत्र से भी अधिक प्यार करती हूं, पर हमारा देवर-भाभी का रिश्ता और घर का सूनापन दुनिया की नज़रों में अब किरकिरी की तरह चुभने लगा है. एक दिन गांव से वृद्धा चाची सास को मनुहारपूर्वक अपने पास बुला लिया. मैं चाहती थी कि जो चिन्गारी आज बुआ के मन में कौंधी है, कल वो हवा का हल्का-सा स्पर्श पाकर प्रचंड ज्वाला में न बदल जाए, इसके लिए किसी न किसी रिश्तेदार का हमारे साथ रहना ज़रूरी है.” जया का हृदय आद्या दीदी की पीड़ा को महसूस कर व्यथित हो रहा था. जब वो इस घर में पहली बार आयी थी, उस व़क़्त भी चाची यही थीं, तीन-चार महीने पहले ही तो उनका स्वर्गवास हुआ है. उसने व्यग्र होकर पूछा, “फिर….?” “फिर… समय धीरे-धीरे अपनी गति से बीतने लगा. एम.बी.ए. करने के बाद अभि को बढ़िया नौकरी मिल गयी, तो उसने ज़िद करके मेरी नौकरी छुड़वा दी. सच कहती हूं जया, पतिहीन होने का दर्द मुझे हर क्षण सालता है, पर मैं संतानहीन नहीं हूं. अभि जैसे देवर पर तो सौ संतानें न्यौछावर हैं…” आद्या दीदी भावविह्वल हो उठी थीं. जया ने आतुर होकर कहा था, “अभि भाग्यवान हैं, जो उन्हें कभी मां की कमी महसूस ही नहीं हुई.” जया साये की तरह दीदी के साथ लगी रहती. उन्हें ख़ुश रखने का भरपूर प्रयास करती रहती. दिन पंख लगाये उड़ते जा रहे थे. अब आद्या दीदी को स़िर्फ उस क्षण की प्रतीक्षा थी, जब वो अभिनव की संतान का मुंह देख सके. धीरे-धीरे दो वर्ष गुज़र गये. समय काटने के लिए जया ने भी अभिनव के ऑफ़िस में एक पार्ट टाइम जॉब कर लिया था. क़रीब दो महीनों से दोनों पति-पत्नी दस बजे ऑफ़िस चले जाते और शाम को साथ ही लौटते थे. पर आज सुबह से ही जया को माइग्रेन का तीखा दर्द परेशान कर रहा था. जब दवा देने पर भी आराम नहीं मिला तो उसने अभिनव से कहा कि वो ऑफ़िस चला जाय… आज वो नहीं जा सकेगी. “भाभी, दरवाज़ा लगा लीजिये.” कहकर अभिनव रोज़ की तरह चला गया. आद्या दीदी ने भी रोज़ की तरह दरवाज़ा लगा दिया और अपने कमरे में चली गयीं. उन्हें इस बात का पता ही नहीं था कि जया अपने कमरे में ही है. कुछ देर बाद जब जया का सिरदर्द हल्का हुआ तो वो दो कप चाय बनाकर आद्या दीदी के कमरे तक आयी. तो देखा, दरवाज़ा उढ़का हुआ है. पास से दरवाज़ा खोलते हुए वो अचानक कमरे में आ गयी और बोली, “दीदी! मैं चाय…” आगे के शब्द उसके कंठ में ही रह गये. सामने का दृश्य देखकर वो हतप्रभ रह गयी थी. हाथ में पकड़ी ट्रे छूटकर ज़मीन पर गिर गयी थी…. चाय भरी प्यालियों के टुकड़े छन्न से चारों तरफ़ बिखर गये थे… और फिर कमरे में भयंकर सन्नाटा छा गया था. जया की विस्फारित दृष्टि सामने का दृश्य देखकर जड़ हो गयी थी. आदमकद ड्रेसिंग टेबल के सामने सोलह शृंगार किये आद्या दीदी बैठी थीं. नीले पाड़वाली लाल बनारसी साड़ी, कान-गले और हाथों में सोने के जड़ाऊ ज़ेवर, माथे पर बेहद सुंदर मांग टीका, नाक में लाल मोतियों की लड़ी से बंधी नथ, हाथों में लाल कामदार कंगन, पांवों में पायल और माथे पर नग जड़ी अंडाकार लाल बिंदी. “तुम?” आद्या दीदी तो जया को देखकर चेतनारहित प्रस्तर प्रतिमा की भांति स्पंदनहीन हो गयी थीं. दोनों की आंखें एक-दूसरे को देखकर आश्‍चर्य से फटी रह गयी थीं. कमरे में छाया मौन थोड़ी देर बाद आद्या दीदी के हृदयविदारक रूदन से टूटा था. “मेरा ये रूप देखकर तुम्हें मुझसे घृणा हो गयी होगी न जया?” एक-एक कर सारे आभूषण उतारती आद्या दीदी रोते-रोते कहती जा रही थीं, “मैं अभि के भैया की उस बात को कभी भूल नहीं पाती हूं, जो उन्होंने शादी के मात्र बीस दिन बाद आये तीज के त्योहार के दिन मुझसे कही थी. शृंगारप्रिया तो मैं थी ही, उस दिन पूरा शृंगार करके पूजा करने जा रही थी.. कि उन्होंने अचानक आकुलता से मुझे निबिड़ आलिंगन में बांधते हुए कहा था, “लाल रंग प्रेम-ऊर्जा, स्पंदन, गहराई और आकर्षण का प्रतीक होता है. अब तक सुना था, पर आज प्रत्यक्ष देख भी लिया. लाल चूड़ियां, लाल साड़ी…. सच, तुम आज इतनी ख़ूबसूरत लग रही हो कि कहीं मेरी ही नज़र न लग जाए. और ये कत्थई बिंदिया क्यों? लाल रंग की बिंदी भी लगाया करो… जिससे मैं मरते दम तक तुम्हारी ये छवि भुला न पाऊं. वैसे… ऐसा श्रृंगार जब भी करोगी, मुझे अपने आस-पास ही पाओगी.” दीदी फिर बिलख उठी थीं. आंसू पोंछकर उन्होंने अपनी भारी सांसों के साथ-साथ बनारसी साड़ी भी सहेजकर उस अलमारी में रख दी थी, जिसके बंद दरवाज़े हमेशा जया को कौतुहल से भरते थे कि आख़िर क्या है इसमें जो दीदी इसे कभी खोलकर नहीं दिखातीं? एक बार उसने पूछा भी था, तो दीदी ने सहजता से बात टाल दी थी… “घर के कुछ काग़ज़ात और पुरानी क़िताबें हैं जया.” और आज उसी अलमारी के पट आद्या दीदी के हृदय की तरह उसके सामने खुले पड़े थे. आद्या दीदी आद्रर्र् स्वर में कहती जा रही थीं, “अब जब भी बेचैन होती हूं, पूरा शृंगार करके घंटों आईने में अपना प्रतिबिंब देखती रहती हूं, उस क्षण वो सारे सुख, अरमान जो दिल की दहलीज़ के उस पार मजबूरी में रखने पड़े थे, हृदय द्वार पर दस्तक देने लगते हैं और मैं उन्हें दबे पांव हृदय के पट खोल भीतर आने देती हूं… अचानक लगता है, जैसे आईने में उनकी छवि भी कौंध उठी हो. होंठों पर हंसी नहीं, मायूसी का भाव और हवा में तैरते कुछ शब्द… क्षमा करना, छाया हूं मैं… तुम्हारे सौंदर्य पर ग्रहण लग गया…” आद्या दीदी की हृदयगत, संचित वेदना की सीमाएं टूट गयी थीं. दोनों हाथों में चेहरा छिपाए वो फूट-फूट कर रो पड़ी थीं. जया का अंतर्मन भी विदीर्ण हो उठा था. जीवनसाथी से वियुक्त एक नारी और उसकी नारी सुलभ इच्छाओं के मध्य जब युद्ध छिड़ जाता है, तो वेदना उस पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है, जहां वाणी मौन हो जाती है और सारे स्पंदन जड़… दोनों गले मिलकर रोती रहीं. कुछ देर बाद दीदी ने उस अलमारी की चाभी जया के हाथ में थमाते हुए कहा, “इसे अब तुम्हीं रखो… मैं…” “नहीं दीदी! ये आपका नितांत निजी और मन से जुड़ा मामला है. मैं इसमें कभी हस्तक्षेप नहीं करूंगी. मैं भी तो एक नारी हूं, आपकी वेदना से अनभिज्ञ कैसे रह सकती हूं.” उस क्षण को याद कर वो फिर सिसक पड़ी. अचानक पार्श्‍व में सोये अभिनव की नींद टूट गयी. उसने जया के माथे पर हाथ रखते हुए पूछा, “बहुत दर्द हो रहा है क्या?” वो विचारों के गहरे भंवर से बाहर निकलती हुई बोली, “हां….!” “सब ठीक हो जाएगा.” कहते हुए अभिनव ने जया को अपने अंक में समेट लिया. पति के सीने में सिमटी जया सोच रही थी, कितना मधुर होता है ये बाहुपाश… और कितना बड़ा संबल भी, जिसमें समाकर स्त्री अपनी संपूर्ण पीड़ा विस्मृत कर बैठती है. और कितना दुश्कर होता है वो सफ़र, जिसमें नियति सारी ख़ुशियां दिल की दहलीज़ के उस पार रखने पर विवश कर देती है. Credit: Meri Saheli